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भाग ३
नाटक
भविष्य की ओर
गंध में लिखा एक एकांकी नाटक जो किसी भी देश में उसके रीति-रिवाज के अनुसार तोड़ी-बहुत अदल-बदल करके खेला जा सकता है ।
पात्र :
वह कवि सूक्ष्मदर्शी गायिका चित्रकार सखी
भविष्य की ओर
(पर्दा उठता है वह अपनी साध की पढ़ीं एक सहेली के साथ सोक पर बैठे है !)
वह- आहा, तुम कैसी अच्छी हो जो इतने दिनों बाद मिलने आ गयीं... मैंने तो सोच लिया था कि तुम मुझे मूल गयीं ।
सखी-हर्गिज नहीं । लेकिन मैं तो तुम्हारा ठिकाना ही खो बैठे और यह भी न जान पायी कि तुम्हें कहां खोजूं । और अब इतने दिनों बाद तुम्हें देखकर कीनना आश्चर्य हो रहा हैं ! तू और विवाहिता... कैसी अजीब बात है! मुझे तो विश्वास हीं नहीं होता ।
वह-हां, स्वयं मुह्मे भी आश्चर्य हैं ।
सखी-मैं समझ सकती हूं... मुझे याद है कि तुम कितने व्यंग्य के साथ विवाह को ''उत्पादन और उपभोग की सहयोग-समिति' ' कहा करती थीं, और मानव जीवन में जो कुछ पशुवृत्ति को या पाशविकता को व्यक्त करे उसके लिये तुम्हें कितनी घृणा हुआ करती थी । कैसे भाव-भंगी के साथ तुम कहा करती थीं : ''हम कुत्ते- बिल्ली तो न बनें... । ''
वह-हां, मै हमेशा प्रचलित धारणाओं और रीति-रिवाजों का मजाक उड़ानें में बहुत रस लेती थी । लेकिन तुम्हें मेरे साथ न्याय करने के लिये यह भी मानना होगा कि मैंने कभी सच्चे प्रेम अर्थात् जो प्रेम आंतरिक मिलन से पैदा होता हैं, जिसमें विचारों और अभीप्साओं की समानता होती है, उस प्रेम के विरुद्ध कभी कुछ नहीं कहा । मैंने हमेशा उस महाप्रेम के स्वप्न देखे हैं जो दो व्यक्तियों को एक वनाता हो, जो पशुवृत्ति से अछूता हो, जो महाप्रेम सृष्टि के मूल में है उसे भौतिक रूप में प्रकट कर सके । यहीं समह्म मेरे विवाह का मुख्य कारण था । लेकिन इससे बहुत सुखकर अनुभूति नहीं हुई । मैंने बड़ी सच्चाई के साथ, वहीं तीव्रता से प्रेम किया पर मेरे प्रेम को अपनी आशा के अनुसार प्रत्युत्तर नहीं मिला...
सखी-बेचारी!
वह-नहीं, तुम्हारी सहानुभूति पाने के लिये मैंने यह बात नहीं कही ! मुझे दया की जरूरत नहीं है । जगत् की जो अवस्था है उसमें मेरे स्वप्न का चरितार्थ होना लगभग असंभव है । उसके लिये मानव प्रकृति में एक बड़े परिवर्तन की जरूरत हैं । इसके अतिरिक्त, हम दोनों मै, मेरे और मेरे पति में, बहुत मेल-मिलाप हैं, फिर भी दोनों अपने-अपने स्थान पर पूरी तरह अकेलापन अनुभव करते हैं । परस्पर आदर- मान की भावना और एकदूसरे की सुविधा-असुविधा का ख्याल हमारे अंदर एक सामंजस्य बनाये हुए है और इस कारण जीवन का भार कुछ हल्का हो जाता है । परंतु क्या यही सुख हैं?
सखी-बहुतों की दृष्टि में तो यही सुख हैं ।
वह-यह ठीक है, परंतु कभी-कभी जीवन बड़ा खाली-खाली लगता हैं । इस खालीपन और शून्यमान को भरने के लिये ही मैंने अपने-आपको पूरी तरह सें और पूरी . सच्चाई के साथ एक अद्भुत कार्य में लगा दिया है जो मुझे अत्यंत प्रिय है । वह श. काम क्या है? दुःखी मानवता के कष्ट को हल्का करना, उसे अपनी क्षमताओं और अपने जीवन के सच्चे लक्ष्य और अंतिम रूपांतर के संबंध में सजग करना ।
सखी-मुझे लगता हैं कि एक महान और असाधारण वस्तु तुम्हारे जीवन को परिचालित कर रहीं हैं । लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि वह है क्या, इसलिये मुझे वह काफी रहस्यमय लगती है ।
वह-हां, मुझे सारी बात ठीक तरह समह्मकर कहनी चाहिये । विस्तार से कहने में समय लगेगा । अगर मैं तुम्हारे धर आ जाऊं... क्या राय है?
सखी-वाह, बहुत अच्छे ! मुझे बढ़ी खुशी होगी । तो फिर कब आ रही हो ? आज हीं रखो ।
वह-हां, खुशी से । मुझे लोगों को इस अनुपम साधना के बारे मे बताते हुए बढ़ी खुशी होती है जो हमारे जीवन को दिशा और हमारे संकल्प को निर्देश देती है । अभी, भूखे कुछ चीजों को ठीक-ठक करना होगा ताकि मेरे पति जब सैर से वापिस आयें तो उन्हें सब कुछ तैयार मिले । और उनके अपने काम मे लगते ही मै बाहर निकल पहुंची और तुमसे मिलने आ जाऊंगी ।
सखी- अच्छा, तो चूल । अब तो जल्दी हीं मिलेंगे ।
(वह अपनी सखी क्वे साथ परदे के पीछे दरवाजे तक जाती है लौटकर लिखने की मेज़ पर कामज गुस्तके और लिखने का सामान ठीक तरह सजा देती है मजे पर कुछ कृत्य रखता है और चारों ओर नजर दौड़ाकर देख लेती है कि सब कुछ ठीक है उसी समय दरवाजे के तात्हे मैं चाबी घूमने की आवाज आती है !)
वह- आहा ! बे आ गये । (कवि आता हैं ! बह बड़े रहने के साथ उसकी ओर बढ़ती हैं ?? क्यों, सैर अच्छी रही न?
कवि- (अन्यमनस्क भाव से) हां । (कुरसी पर टोप रखता है ) मुझे अपनी कविता का उपसंहार मिल गया । टहलते-टहलते ये पंक्तियों अचानक ही आ गयीं । सचमुच खुशी हवा मे घूमने-फिरते से प्रेरणा सहज रूप से आ जाती है । हां, मुह्मे लगता बे कि ऐसा ठीक रहेगा : मेरी कविता के अंत मे एक महाविजय का मान होगा, एक विजय-मंत्र होगा, विकसित मानव का कीर्तिमान होगा जिसने अपनी मूल चेतना के साथ वह जो कुछ कर सख्ती हैं उसके लाना और उसे चरितार्थ करने की सामर्थ्य को खोज लिया है । मै पार्थिव अमरता की विजय की सुखद भव्यता के ऐक्य की ओर बढ़ते हुए उस मानव का वर्णन करता हूं । सचमुच यह कैसी सुन्दर और सार्वभौम चीज होगी, है न ? बहुत समय बीत चुका हैं, अब कला को कुरूप
४१६ और पराजय का साथ न देना चाहिये... । वह कैसा सुखद दिन होगा जब काव्य, चित्रकला और संगीत केवल सौंदर्य, विजय और आनंद को अभिव्यक्त करेंगे, इतना ही नहीं, वे भावी सिद्धि का रास्ता खोल देंगे, उस जगत् की ओर ले चलेंगे जहां मिथ्यात्व, दुःख-कष्ट, कुरूपता और मृत्यु न होगी... । परंतु जबतक यह नहीं हो पाये तबतक मनुष्य को अब मी कितना दुःख-दैन्य, कितना कष्ट और कटु एकाकीपन सहना पड़ का है... । सचमुच भयंकर हैं यह अवस्था ! हर एक को, वह चाहे या न चाहे, अपना भार अपने कंधों पर ढोना ही पढ़ो रहा है । (बिचारमन वह- (नजदीक आकर बड़े प्रेम ले उसके कंधे पर हाथ रखते हुए ? चली, अपना काम शुरू कर दो, तुम जानते हीं हो कि विषाद के लिये यही रामबाण औषध है । मै तुम्हें प्रेरणा के हाथों में सौंपती हूं । मैंने अपनी सखी को वचन दिया है कि आज शाम उसके यहां बताऊंगी और उसे उस अद्भुत शिक्षा के बारे में कुछ बताऊंगी जो हमारे जीवन को मार्ग दिखाती है । हम दोनों मिलकर संभवत: इस गहन सत्य से मरे दों-चार पृष्ठ पढ़ेंगे । इस विषय पर मनन करने में हम दोनों को बड़ा आनंद मिलता ह्वै । इससे बहुतों की धारणाएं उलट-पुलट हो जाने की संभावना है, है न । लोगों की दृढ़ मान्यता हैं कि स्त्रियों केवल कपड़े-लत्तों की बातें करने में हीं होशियार होती हैं । साधारण रूप से देखा जाये तो यह बात है भी ठीक । अधिकतर सिय बहुत हल्की या ओछे होती हैं, या कम-से-कम बाहर से देखने में तो ऐसा ही लगता है । पर बहुत बार इस हलकापन के पीछे भारी हृदय छिपा होता हैं, मानों यह ओछापन अतृप्त जीवन को ढके रखने के लिये एक परदा होता है । बेचारी औरतें! मैं ऐसी बहुत-सी स्त्रियों को जानती हूं जो बहुत दुःखी हैं और दया की पात्र हैं ।
कवि-तुम्हारी बात ठीक है । स्त्रियों की दशा बहुत दुखपूर्ण और दयनीय है । प्रायः सभी आवश्यक सहायता और सहारे से वंचित हैं और वे उन छोटी-छोटी डींगियों जैसी हैं जिनके पास ऐसा बंदरगाह तक नहीं है जो तूफ़ानों के समय उन्हें आसरा दे सके । क्योंकि अधिकतर स्त्रियों को ऐसी शिक्षा नहीं मिलती जिसकी सहायता से वे अपनी रक्षा कर सकें।
वह-यह सच है । इसके अतिरिक्त, शक्तिशाली और समर्थ नारी को भी प्रीति और सुरक्षा की तीव्र जरूरत होती है, एक सर्वसमर्थ की जो अपने सुखदायी माधुर्य के साथ उस पर झुका हुआ हो और उसे चारों ओर सें घेरे रहे । वह प्रेम मे इसी की खोज करती हैं, और अगर सौभाग्यवश उसे पा जाये तो उससे जीवन में विश्वास पैदा होता हैं और आशा के सब द्वार खुल जाते हैं । और अगर यह न मिले तो उसके लिये जीवन एक ऊसर मरुभूमि बन जाता हैं जो हृदय को जलाता और सुखा देता हैं ।
कवि-वाह, तुम यह सब कितनी अच्छी तरह कहती हो! तुम ऐसे व्यक्ति की तरह
४१७ बोलती हो जिसने तीव्रता के साथ इन बातों का अनुभव किया हों! मै इन बातों को लिख रखूंगी, मेरी अगली पुस्तक स्त्री-शिक्षा के बारे मे होगी, उसमें ये बातें काम आयेगी । चली, अब मै काम मे लग ।
वह- अच्छी बात है; तो फिर मैं भी चूल । (किताब लिये बाहर निकल जाती है !)
कवि- (मेज़ के सामने बैठकर देखता है कि उसके काम के लिये सब कुछ तैयार है? हमेशा की तरह वही सजग और सहृदय सावधानी । यह अपनी सुव्यवस्था और मृदुता मे कभी नहीं चूकती । उसकी ओर देखने से लगता हैं मानों एक -ज्योति है : उसके चारों ओर उसकी बुद्धिमत्ता और सहृदयता की रोशनी छिटकती है, जिसे वह अपने आस-पास के लोगों पर फैलाती जाती है और उन्हें विशाल क्षितिज की ओर ले चलती है । मैं उसकी प्रशंसा करता हू, मुझे उसके लिये बहुत मान हैं... । लेकिन यह सब तो प्रेम नहीं है... । प्रेम! वह तो स्वप्न है! क्या कभी सत्य भी होगा? (एक अदमुत स्वर मे माना सुनायी देता है कवि लपककर खुश्क खिड़की की ओर जाता है ओह, कितना अच्छा स्वर है! सकुचाई सुनता थे माना खतम होने पर एक लम्बी सांस लेकर मेज़ की ओर बढ़ता है उसी समय दरवाजा खटखटाने की आवाज होती है !) हां, भाई, कौन हैं?
(कवि दरवाजा खोलने जाता है चित्रकार का प्रवेश)
कवि- ओहो, तुम हो! आओ, सु स्वागतम । इधर कैसे भटक पढ़ें?
चित्रकार- तुमसे कुछ बातें करनी थीं । अभी तुम्हारी श्रीमती मिल गयीं और उन्होंने कहा कि तुम अपनी ''गुफा' ' मे ही ही । तो सीधा इधर चला आया ।
कवि-बढ़ा अच्छा किया तुमने... । आओ, जिसे तुम ''गुफा' ' कहते हो उसमें प्रवेश करी, और अपनी बात शुरू कर दो । मेरी उत्सुकता न बढ़ाई । कुछ चित्रों के बारे मे कहना है?
चित्रकार-नहीं, चित्रकारी ठीक नहीं चल रहीं हैं । उसके बारे मे फिर कभी । आज तो संगीत की बात करनी है । (कवि के कान खड़े हो जाते हैं ?? कल शाम को एक मित्र के यहां दावत मे, एक उच्च कोटि की सच्ची गायिका का गान सुना; सुना है वह तुम्हारी पडोसिन है । (कवि आश्चर्य और रुचि दिखाता है !) तुम उसे जानते हों?
कवि-नहीं, लेकिन यहीं बैठे-बैठे बहुत बार उसका गाना सुना हैं । कैसा अद्भुत गल। है, उसे सुनते ही मेरे अंतर की सभी तंत्रीय झंकृत हो उठती है । पहले-पहल जब उसका स्वर मेरे कानों मे पहा, तभी से कुछ परिचित-सा लगता है, मानों अतीत की प्रतिध्वनि हो । मै प्रायः छ: मास है यह सुन रहा हू, ऐसा लगता ३ मानों वह मेरे काम के साथ ठीक ताल मे चलता है । कई बार इच्छा द्रुआ है कि ऐसे सुंदर स्वरयंत्र की स्वामिनी सें परिचय कर छ ।
चित्रकार-कैसा सुयोग ! कल हीं
पहली बार उसके साथ
परिचय हुआ, वह बड़े मधुर ४१८ स्वभाव की लड़की मालूम हुई । हम दोनों बातचीत करते रहे और उसने किसी प्रसंग मे कहा कि उसे तुम्हारी कविता बहुत पसंद है, ऐसा लगा कि उसने तुम्हारी कविता बड़े उत्साह के साथ पढ़ीं हैं । उसने यह भी कहा ३ कि वह जीवन मे बिलकुल अकेली हैं, उसका कोई नहीं है, उसे अपने ही बल पर खड़ा रहना पड़ता है और कभी-कभी बड़ी मुश्किल आ जाती है । वह किसी सहगान मे भाग लेने के स्वप्न देख रहीं है । यह सुनते ही मुख तुम्हारा ख्याल हो आया, तुम्हारा तो इस क्षेत्र मे कच्छा परिचय हैं । तुम्हारी उदारता तो सब जानते हैं । मैंने प्रस्ताव किया कि मैं तुमसे उसके बारे मे बातचीत करुंगा और यह पता लगाऊंगा कि किसी बेह संगीतकार या संगीत लेखक के साथ उसका परिचय करा देने के लिये तुम तैयार हों या नहीं-मेरे आने का उद्देश्य बस, यही है ।
कवि-बड़ा अच्छा किया तुमने । हां, मैं वहीं खुशी के साथ उसके काम-काज में लग जऊंगा। तो तुम दोनों ने ठीक क्या निक्षय किया है?
चित्रकार-यह ठीक हुआ था कि यदि तुम राजी हो जाओ तो उसे इसी समय यहां बुल लऊंगा और मैं तुम दोनों का परिचय करा दंगा-उसका घर दूर नहीं हैं । कवि-बिलकुल ठीक । जाओ, उसे ले' आओ । मैं प्रतीक्षा करता हू । (चित्रकार जाता है!)
कवि- (बड़ी चंचलता ले हुआ ) कितनी अजीब बात है, कितनी अजीब... । संयोग नाम की कोई चीज नहीं होती; हर कार्य का कारण होता है, पर हां, वह कारण हमारे बस मे नहीं होता । आंतरिक सादृश्य-कौन जाने? मैं यह जानने के लिये उत्सुक हूं कि स्वर जितना सुन्दर है यंत्र मी उसके समान सुन्दर है या नहीं । लो, आ गये । (भिड़ा हुआ दरवाजा खुलता है ) ओह, क्या सुन्दर हे! (गायिका का मुसकुराते हुए प्रवेश पीछे-पीछे चित्रकार)
चित्रकार- आइये, यह हैं मेरे सुप्रसिद्ध कवि मित्र, जिनकी आप खूब तारीफ किया करती हैं ।
कवि- आइये, आइये, आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई । मैं यह कहने का सुयोग ले सुंड कि मैं आपके गले का बड़ा प्रशंसक हूं, .जिसका उपयोग आप कला के लिये इतने कौशल के साथ करती हैं ।
गायिका- आपकी कृपा है, महाशय, धन्यवाद । आशा करती हू कि इस तरह बिना औपचारिकता के घुस आने के लिये आप क्षमा करेंगे । लेकिन आखिर हम पड़ोसी ही तो हैं । परिचय होने से पहले ही मैं आपको जानती थी । मैंने देखा है कि मेरे गाते समय प्रायः आप सुनने के लिये खिड़की के पास आ खड़े होते हैं, और, पहले-पहल, जब आपने तारीफ की तो मुझे अच्छा नहीं लगा । मैंने सोचा कि आप मेरा मजाक उठा रहे हैं ।
कवि-क्या कहती हैं आप! मै तो आपको यह बतला रहा था कि मैं आपके गुण पर
४१९ कितना मुग्ध हूं और आपके गाने से जो सुरुचिपूर्ण आनंद मिल रहा था उसके लिये आभार-प्रदर्शन कर रहा था ।
चित्रकार- अच्छा, अब मेरा काम हो गया, मै चला । चित्रों के एक व्यापारी से मिलना - हैं । उफ़! कैसा रद्दी आदमी है! मुझसे ऊट-पटांग काम करवाना चाहता है और ?एक कहता है कि यही आधुनिक रुचि हैं । लेकिन मै विरोध कर रहा हूं...
कवि-हां, विरोध करो, बहादुरी के साथ विरोध करो । आधुनिक रुचि के इस विकार को कभी प्रोत्साहन न दो । ऐसा लगता है कि आजकल लोगों की चेतना कला के एक मिथ्या आभास मे फिसल गयी है, यह विकृति मानव-सर्जन के सभी क्षेत्रों में फैली हुई है ।
चित्रकार-ठीक है, भाई, अब मै चलता हूं, प्राण में एक नया साहस लेकर सत्य के लिये युद्ध करने । अच्छा, फिर मिलेंगे !
कवि और गायिका- अच्छा नमस्कार । (चित्रकार जाता है !)
कवि- (सोफा दिखाकर) कृपया बैठ जाइये न ।
गायिका- (बैठती है) तो आप कुछ लोगों से मेरा परिचय करा देंगे और मेरे गान की व्यवस्था कर देंगे?
कवि-जरूर । यहां के एक विख्यात संगीत-दिग्दर्शक मेरे मित्र हैं और आप जैसे गुणी लोगों के लिये सब रास्ते खुले रहते हैं ।
गायिका-बहा उपकार होगा । बहुत, बहुत धन्यवाद ।
कवि-नहीं, नहीं, धन्यवाद न लीजिये । (गायिका के पास बैठते हुए) आपको अगर मालूम होता कि आपने मुझे कितना आनंद दिया है... । काश, आपको मालूम होता कि आपके ऊष्मा-भरे कंठ ने मेरे दैनिक कार्य मे कितना सुख दिया हैं । उन सुंदर और मधुर घंटों के लिये मै द्वि आपकी ऋणी हू; हां, मुझे ही धन्यवाद देना चाहिये ।
गायिका-यह तो सब आपकी कृपा हैं । (चारों ओर देखकर मुस्कराते हुए कवि से) एक अजीब बात है, यहां मुझे सब कुछ परिचित-सा लगता है, शायद चीजें इतनी परिचित नहीं हैं जितनी यहां की हवा, वह वातावरण जो चीजों को लपेटे हुए हैं । धृष्टता के लिये क्षमा करें, मुझे ऐसा लगता है मानों मै अपने हीं धर में हू, मानों हमेशा से यहीं रहती आयी हू । और मुझे लगता है कि अब मुझे सब प्रकार का सौभाग्य प्राप्त होगा ।
कवि-इससे मुझे ही सबसे पहले खुशी होगी ।
गायिका- (जरा चुप रहाकर) आपको एक मजेदार बात सुनाऊं । लगभग छ: महीने पहले की बात है, मैं अपनी मां की मृत्यु के बाद कुछ कमाई की आशा में इस शहर में आयी थीं, मुह्मे कई मकानों में से किसी एक को चुनना था, हर एक में अपनी-अपनी सुविधा-असुविधा थीं । आखिर मैंने इस मकान को चूना, यह औरों
४२० से विशेष न था, मैंने इसे अंतःप्रेरणा के कारण लिया था, मुझे लगा कि मै इसमें सुखी रखूंगी और यह मेरे लिये शुभ होगा... । अजीब बात है न?
कवि- (कुछ सोचते हुए) अद्भुत, हां, बढ़ी अद्भुत बात हैं... (स्वगत) कौन जाने, यह आंतरिक संयोग न हो । (गायिका से) देखिये, यह मी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस दिन से रोज आपका मान सुन रहा हूं उस दिन से बड़ी शांति और तृप्ति का अनुभव करता हूं, और आपके साथ परिचय करने की बही इच्छा थी ।
गायिका- और मै आपको एक बड़े लेखक के रूप में ही जानती थी, आपकी प्रतिभा की मै बहुत अधिक सराहना करती थी, पर आपसे मिल सकने की बात तो मेरे स्वप्न मे भी न आयी थीं । जीवन मे कितनी हीं बातें बढ़ी असाधारण और रहस्यमय होती हैं... रहस्यमय शायद इसलिये कि हम उनके कारण नहीं जानते, अन्यथा सभी बातें बड़ी सहज और स्वाभाविक होती । अब यही लीजिये न, इस समय, मैं भी अपने अंदर एक स्वस्ति और शांति का अनुभव कर रहीं हूं और उससे बढ़ा बल मिल रहा है । आप नहीं जानते, मुझे इस समय बल और साहस की कितनी जरूरत है... । मेरे जैसी अनाथ लड़की के लिये जीवन बड़ा हीं कठोर है, मेरा कोई सहारा नहीं, कोई सहायक नहीं, मुझे बिना किसी मदद के अपने पैरों पर खड़े होकर आजीविका कमानी है और इस सारे युद्ध में कोई ऐसा नहीं जिसकी ओर मदद के लिये आंख उठा सकूं । लेकिन आपके साथ मिलकर ऐसा लगता है मानों सारी विघ्न-बाधाएं दूर हो जायेंगी ।
कवि-विश्वास रखिये, मै आपकी सहायता के लिये भरसक कोशिश करुंगा । एक कलाकार और फिर आप जैसी महिला की सहायता करना जहां हमारा कर्तव्य है वहां बढ़ा आनंददायक भी हैं ।
गायिका- (कवि का हाथ सहजरूप में अपने हाथ मे लेते हुए ) धन्यवाद । ऐसा लगता है कि हम दोनों चिरकाल से इसी तरह, पास-पास बैठे हैं, और हम पुराने मित्र हैं... । क्यों, हम दोनों मित्र हैं न ?
कवि- (गंभीरता ले) हां, हृदय की गहराइयों से ।
गायिका-मुझे यहां इतनी आजादी का अनुभव हो का है कि मैं सभ्यता और शिष्टाचार भूलती जा रही हू । इसका सबसे बढ़ा प्रमाण लीजिये, मुझे बहुत जोर से नींद आ रहीं है । अपने धर मे बहुत दिनों से अच्छी नींद नहीं आयी । बड़ी चिंता लगीं रहती हैं, मुझे ऐसा लगता हैं मानों अदृश्य शत्रु चारों ओर से घेरकर मेरा अनिष्ट करना चाहते हैं । मै किसी तरह अपने-आपको शांत नहीं रख पाती, मुझे आराम की बहुत अधिक जरूरत है रार यह नहीं मिल पाता । जब कि यहां मुझे ऐसा लगता है मानों एक ऊष्मा-भरा, सजीव लबादा मुझे चारों ओर सें घेरे हुए हैं और धीरे-धीरे नींद मेरे ऊपर अधिकार करती जा रहो है ।
कवि- (सन्देह देखते हुए ) तो इस गद्दे पर लेट जाइये न । आराम से लेटिये किसी
४२१ बात की चीना न कीजिये । और सबसे बढ़कर, एक क्षण के लिये मी सभ्यता, शिष्टाचार और लोकाचार की परवाह न कीजिये; ये सब बाधा-व्याघात हैं जिनका मूल्य कुछ भी नहीं । मनुष्य ने इन्हें अपने दुर्भाग्य के लिये ही गढ़ा है ।
.गायिका-मुझे नींद की बहुत जरूरत है । मेरे सिद्द मे निरंतर दर्द हमेशा बना रहता है 6. जिसके कारण बड़ा कष्ट होता हैं । जल्दी-से-जल्दी सफलता पाने के लिये मैंने बड़ा परिश्रम किया हैं और मेरा सिर बहुत अधिक थक गया हैं ।
कवि- (बड़े आवेग क्वे साध) आपकी अनुमति हो तो... मुझे लगता है कि मैं आसानी से आपके कष्ट को हल्का कर सकता हूं । (गायिका के माथे' पर इकी बार हाथ करता ह्वै फिर थोडी देर उसके तिरपन हाथ रखता है गायिका गद्दे पर .त्एटते ही खो जाती है उसके चेहरे पर प्रस्तरण और सुख का भाव है !)
गायिका- (आधी नींद में ) अब अच्छा लग रहा है... अब दर्द नहीं रहा... कैसा आनंद है !
कवि- (तकिये ठीक-ठाक करता है ताकि वह आराम ले लेट सके और उसके पास सोफा पर बैठकर उसका हाथ अपने हाथ मे लेते हुए स्वगत) बेचारी, कितनी दुःखी हैं, इतनी सुन्दर और फिर भी इतनी अकेली!
गायिका- (नींद मे) ओह, कैसा सुन्दर है! कवि- (धीमे स्वर में) क्या हैं सुन्दर?
गायिका - (पहत्हे की तरह नींद मैं ही) आपके चारों ओर जो बैंगनी प्रकाश है... एक जीवित-जाग्रत प्रकाशमान नीलम की तरह । यह मेरे चारों और भी है, यह मुझे बल दे रहा है । यह एक कवच है, अमोघ कवच... । अब कोई अशुभ वस्तु मेरे पास न फाटक पायेगी । (आनंद के साध) यह बैंगनी रंग कितना सुंदर है जो आपको चारों ओर सें घेरे हुए है !
कवि- अब अच्छा लग रहा है तो शिक्षित होकर बिना कुछ देखे-सुने सोती चाहिये । गायिका- (दूर ले आती हुर्ड़ आवाज मे) मैं सो रही हू, हां, सो रहीं हू । ओह, कैसी शांति हैं, कैसा आराम है!
कवि- ?(मृदुता से उसकी तरफ देखती हुए) सो जा, बच्ची, सो जा-नींद हीं तेरे सजीवन हैं । तेरा जीवन बहा दुःखमय रहा हैं, अब विश्राम जरूरी है । (कुछ देर चुप रहकर) अपने- आपको धोखा देने से क्या लाभ? मुझे स्वीकार कर लेना चाहिये : जिस तरह उसका कंठस्वर मेरी एक-एक हुत्तंत्री को झंकृत कर उठता है, इसी प्रकार उसको उपस्थिति मेरे अंदर शांति और प्रगाढ़ सुख भर देती है । और अब यह. मेरे संरक्षण मे सो रहीं है, यह उसको पहली सचेतन नींद है । उसे मेरे अपर इतना विश्वास हैं, यह विश्वास हो मेरे लिये एक दायित्व पैदा करता है, इस दायित्व को स्वीकार करना मेरे लिये बहुत ही मधुर होगा । लेकिन मैंने जिसके साध भवरे डाली हैं! मै जानता हूं कि वह मजबूत और साहसी है, मुझे मालूम है कि वह बहुत दीनों
४२२ से जानती है कि उसके लिये मेरा स्नेह एक साथी के स्नेह से अधिक नहीं हैं । इतने से उसे संतोष नहीं होता; यह तो उसके प्रेम की गहराई को छू भी नहीं पाता । फिर भी उसके प्रति मेरी जिम्मेदारी तो है ही । उससे किस मुंह से कहूं कि मेरी सारी सत्ता किसी और पर केंद्रित है ? और फिर भी मैं कपट नहीं कर सकता; असत्य हीं एकमात्र पाप है । इसके अतिरिक्त, यह है भी बेकार : उस जैसी खिल को धोखा देना असंभव है । ओह, जीवन प्रायः कितना कठोर हो उठता है!
गायिका- (नींद मे करवटें बदलते हुए अपना हाथ कवि के हाथ पर रखकर) मै सुखी हूं... सुखी हूं... (छोटे बच्चे की निर्भरता के लाख कवि की गोद में सिर रख देती हे !)
कवि-प्यारी बच्ची! मै कर मी क्या सकता हूं? (बड़ी देर तक सोच-विचार मे डूबा हुआ उसे ताकता रहता है ! गायिका लंबी सांस त्हेकर अंगड़ाई लेकर उठ बैठती है!)
गायिका-- (आश्चर्य के साथ इधर-उधर देखकर) मै तो सो गयी थी... । कैसी अच्छी नींद आयी, ऐसी कच्छी तरह तो मैं जीवन में कभी नहीं सोयी ।
कवि-मैं बहुत खुश हूं ।
गायिका- (सस्नेह उसे देखते हुए) देखिये, यह प्रकाश जो आपको घेरे हुए था और जो मेरे ऊपर भी पंडू रहा था वह एक साथ ही बल और सरक्षणदायक था; वह कितना सुंदर, कितना सुखदायक था । अब भी जगाने पर अपने चारों ओर उसका अनुभव कर रहीं हूं ।
कवि-हां, वह प्रकाश आपके चारों ओर अब भी हैं । क्या आप पहली बार इस तरह रंगीन प्रकाश देख रहीं हैं ?
गायिका- नहीं, कुछ ऐसा याद पड़ता हैं कि किन्हीं व्यक्तियों के चारों ओर प्रकाश या रंगीन कुहासा देखा है । लेकिन आपके चारों ओर जैसा प्रकाश देखा है ऐसा पहले कभी नहीं देखा और कभी इतनी घनिष्ठता भी नहीं हुई । प्रायः औरों के चारों ओर एक गंदा, अस्वास्थ्यकर धुंध-सा दिखायी देता है । भला वह क्या होता हैं?
कवि-बात स्पष्ट करने के लिये जस लंबा उत्तर देना होगा । मैं अपनी ओर से थोड़े-से शब्दों में हीं समझाने का प्रयास करुंगा । अगर आप ऊबने लगे तो भूखे रोक दें । हम लोगों की सत्ता अलग-अलग अवस्थाओं और तत्त्वों से मिलकर बनी हैं । हम मित्र-मित्र तत्त्वों से बने हैं-पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि । सोमयज्ञों?
गायिका-हां, मैं चाव सें सुन रही हूं ।
कवि-कम घना तत्त्व अधिक घने तत्त्व मे से निकल सकता है, जैसे आश्रम बरतनों मे से पानी भाप बनकर उह जाता है । बस, इतना ही अंतर कि यहां कुछ भी नष्ट नहीं होता । उसी भांति, हमारे अंदर जो अधिक सूक्ष्म तत्व हे वह हमारे शरीर के चारों ओर एक आवरण-सा बना देता है जिसे हम सूक्ष्म छाया या परिमंडल कहते हैं ।
४२३ गायिका-मैं अच्छी तरह समह्म गयी । अब सारी बात स्पष्ट है । तो इस तरह परिमंडल को देख सकना तो बहुत उपयोगी होता होगा?
कवि- आपका अनुमान ठीक है, यह बड़ी उपयोगी चीज है । आप आसानी है समझ - सकतीं हैं कि परिमंडल हमारे अंदर की अवस्था, हमारी भावना और हमारे विचारों एका प्रतिबिंब होता है । यदि हमारे विचार और हमारी भावना शांत और सामंजस्य- युक्त हों तो परिमंडल भी शांत और सामंजस्यपूर्ण होगा; यदि भावनाएं विक्षुब्ध और विचार चंचल हों तो परिमंडल मी चंचलता और विक्षोभ प्रकट करेगा । उस समय यह धुंध के जैसा दिखायी देगा जैसा कि आपने अमुक लोगों के चारों ओर देखा !
गायिका- अब समझी । तो यह परिमंडल गुप्त रहस्यों को प्रकट करता हैं ।
कवि-हां, जो लोग परिमंडल को देख सकते हैं उन्हें धोखा देना असंभव हैं । उदाहरण के लिये, यदि कोई बुरे उद्देश्य से आता है तो वह अपने-आपको चाहे जितना देवता या साधु पुरुष दिखाना चाहे, सब व्यर्थ होगा । उसका परिमंडल उसके बुरे उद्देश्य और विचारों को प्रकट कर देगा ।
गायिका- (प्रशंसा-भाव से) कैसी अद्भुत बात है! यह शान दुनिया में क्या परिणाम ला सकता है! लेकिन आपने यह सब सुन्दर बातें कहां सीखी? मेरा ख्याल है कि इन्हें जानेवाले बहुत नहीं हैं ।
कवि-हां, विशेष रूप से इस आधुनिक युग मे, हमारे युग में जिसमें सफलता और उससे प्राप्त होनेवाली भौतिक तृप्ति ही का मान है । और फिर ऐसे अतृप्त लोगों की संख्या भी काफी हैं- और बढ्ती जा रही है-जो इस जीवन के हेतु और लक्ष्य को जानना चाहते हैं । दूसरी ओर, ऐसे लोग मी हैं जो ज्ञानी हैं और दुःखी मानवजाति की सहायता करना चाहते हैं; ये लोग उस पस विद्या की रक्षा करते हैं जो हमें वंश-परंपरा से मिली है । यह विद्या उस साधना-शैली का आधार है जिसका उद्देश्य हैं मनुष्य है उस चेतना के प्रति जाग्रत करना जो यह बताती हैं कि वह सचमुच क्या है और क्या कर सकता है ।
गायिका-यह साधना कैसी अद्भुत होगी! आप थोड़ा-थोड़ा करके मुझे मी यह सब दिखलायेंगे न? क्योंकि अब तो हम प्रायः हीं मिला करेंगे, है न? मैं तो यही चाहूंगी कि हम फिर कभी अलग न हों... । जब मै सो रहीं थीं तो मैंने अनुभव किया कि आप मेरे लिये सब कुछ हैं और मैं भी हमेशा के लिये आपकी हूं । और मैंने अनुभव किया कि आपकी छत्रछाया मुझे हमेशा के लिये घेरे रहेगी । और मै जो इतना अधिक डरती थीं, मुख लगता था कि मेरे सामने अनगिनत शत्रु हैं, वही मैं शांत, स्थिर, निश्रित हूं, क्योंकि जो भी मेरा अनिष्ट करना चाहे उससे कह सकतीं हूं : '' अब मुझे तुम्हारा डर नहीं है, मै पूरी तरह सुरक्षित हू । मुह्मे ऐसा संरक्षण प्राप्त है जो मुझे कभी न छोड़नेका । '' क्यों मै ठीक कह रहीं हूं न ?
४२४ कवि-हां, हां, तुम ठीक हीं कह रही हो ।
गायिका-मैं बहुत ही खुश हूं । आखिर आपसे मिलकर बहुत आनंद हुआ । कितने दिनों तक आपकी प्रतीक्षा की है ! और आप, आप मी खुश हैं?
कवि-हां... । अभी तुम्हारे सोते समय मैंने जिस शांत और स्थिर सुख का अनुभव किया वैसा अनुभव पहले कभी नहीं हुआ था । (विचारमग्न होकर) हां, यहीं तो है सच्चा प्रेम और यह प्रेम एक शक्ल है; इस मिलन के फलस्वरूप सब संभावनाओं की सिद्धि हों सकती हैं... । मगर...
गायिका-मगर क्या? जब हम दोनों ही एक साथ रहने मे इतना सुख पाते हैं तो फिर कौन-सी चीज बाधा दे सकती है...?
कवि- (हठात् खड़े होते हुए) आह, तुम्हें नहीं मालूम! (''वह'' दिखायी देती है और कवि धूप हो जाता हैं ''वह'' कुछ समय पहले ले ही परदे की ओट ये खड़ी शी ? ओह ! (शांत भाव ले मुस्कराती हुई ''वह'' आये आती है !)
गायिका-मुझे नहीं मालूम था कि आप विवाहित हैं!
वह- (गायिका लें) परेशान न होओ । (कवि की ओर मुड़कर) और तुम भी मत घबराओ । हां, तुम लोगों की बातचीत का अंतिम हिस्सा मैंने सुना है । मै ठीक उस समय आयी थी जब यह सोचकर उठ रहीं थी । पहले इच्छा हुई कि लौट चूल, तुम्हारी बातचीत मे बाधा न डालें फिर मुझे लगा कि शायद तुम दोनों की बातों को सुन लेना हम सबके लिये हितकर हो । इसलिये मै रुक गयी । चूंकि मुझे विश्वास था कि तुम बड़े असमंजस में पड जाओगे, मेरे मित्र । मैं तुम्हारी ऋजुता और निष्कपट-भाव को जानती हू, और मुझे लगा कि तुम बड़ी दुविधा में पढ़कर बहुत कष्ट पाओगे । तुम जानते ही हों कि जिस शिक्षा को हमने महा सत्य माना है उसके अनुसार सच्चे मिलन का एकमात्र यथार्थ बंधन प्रेम है । प्रेम की अनुपस्थिति हीं किसी मी मिलन को रद्द करने के लिये काफी है । निश्चय हीं, प्रेम के बिना मिलन हो सकता है, जिसमें परस्पर आदर-सम्मान और एक-दूसरे के लिये स्वार्थ- त्याग होता है, इस प्रकार के मिलन है जीवन भली-भांति चल सकता है, पर मै समझती हूं कि जब प्रेम का उदय हो जाये तो और सबको रास्ता छोड़ देना चाहिये । मेरे मित्र, तुम्हें याद तो होगा हीं कि हम दोनों ने यह तय किया था : हमने एक-दूसरे से वादा किया था कि अगर हम में से किसी में सच्चा प्रेम जाये ती उसी क्षण वह विवाह के बंधन से पूर्णतः मुक्त हों जायेगा । इसीलिये मैंने तुम्हारी बातें सूनी, और अब मै तुमसे यह कहने आयी हूं कि तुम मुक्त हो, सुखी रहो ।
कवि- (बहुत आवेश के साध) लेकिन तुम, तुम? मै जानता हूं कि तुम हमेशा चेतना के शिखर पर, निर्मल और शांत ज्योति में निवास करती हो पर अकेलापन कभी- कभी बड़ा कठिन हों जाता हैं और समय पहाड़ बन जाता हैं ।
४२५ वह- ओह, मैं अकेली नहीं रहूंगी । मैं उसके पास जाती हू जिनकी कृपा से हमने अपने मार्ग को जाना, जो सनातन ज्ञान की रक्षा करते हैं और आजतक, से हीं, हमारा पथ-प्रदर्शन करते रहे हैं । वे मुझे अवश्य आश्रय देंगे ! (गायिका की ओर मुड़कर उसका हाथ अपने हाथ मे लेती हैं !) आओ, परेशान न होओ । सहृदय और सच्ची स्त्रियों का वह अधिकार हैं कि वे स्वतंत्रता के साथ उस व्यक्ति को चून सकें जो जीवन मे उनकी रक्षा करे और उन्हें रास्ता दिखाये । तुमने जो किया हैं वह बिलकुल स्वाभाविक और ठीक है । शायद हमारा व्यवहार और हमारी कार्य-पद्धति तुम्हें आश्चर्यजनक लगे; ये बातें तुम्हारे लिये नयी हैं और तुम इनके कारणों से अपरिचित हो । (कवि की ओर इशारा करके) यह तुम्हें सब कुछ समझा देंगे । अच्छा, तो अब मैं विदा लेती हूं । लेकिन ठहरो, उससे पहले तुम दोनों के हाथ मिला दूं । (गायिका का हाथ कवि के हाथों में देती है !) प्रेम के आशीर्वाद से बड़ा कोई आशीर्वाद नहीं हो सकता । पर फिर भी उसके साथ मै अपना आशीर्वाद भी जोड़ती हूं, मैं जानती हूं कि वह तुम्हें मधुर लगेगा । तुम्हारी अनुमति हो तो एक और बात भी कहती चंड, इसे मेरा अनुरोध मान सकते हो । तुम्हारा मिलन पाशविक सूत्र या इंद्रियों की लालसा को तृप्ति देने के लिये एक बहाना न हो इसके विपरीत, वह मिलन परस्पर एक-दूसरे की सहायता से आत्मजय प्राप्त करने का साधन बने, तुम लोग निरंतर अभीप्सा और प्रगति के लिये प्रयास के साथ अपने चरम उत्कर्ष की ओर जा सको । तुम्हारा यह संबंध एक साथ ही महान और उदार हों, अपने स्वरूप में और गुणों में महान् अपनी क्रिया में उदार हों । जगत् के सामने उदाहरण बनो और सभी शुभ संकल्पवालों को दिखा दो कि मानवजाति का सच्चा लक्ष्य क्या है ।
गायिका- (बहुत द्रवित होकर) आप विश्वास रखिये, आप हम पर जो विश्वास करती हैं, उसके योग्य बनने का हम पूरा-पूरा प्रयास करेंगे और आपकी शुभ कामनाओं के योग्य बनने की अधिक-से-अधिक कोशिश करेंगे । परंतु मैं एक बार आपके मुंह सें सुनना चाहती हूं कि मेरे इस मकान में प्रवेश और उसके बाद की घटनाओं ने आपको कोई ऐसी क्षति तो नहीं पहुंचाये जिसे पूरा करना असंभव हो ।
वह-डरो मत । अब
मैंने भली-भांति जान लिया
है कि केवल एक
ही प्रेम हैं जो मुझे संतुष्ट कर सकता
है : वह हैं भगवान् के लिये
प्रेम, भागवत प्रेम, चूंकि. एक भागवत प्रेम ही मनुष्य को कभी निराश
नहीं करता । शायद एक दिन वह सुअवसर आयेगा और आवश्यकता के अनुसार सहायता भी मिलेगी जिसके परिणामस्वरूप परम सिद्धि लाभ होगी, यानी, भौतिक सत्ता
का रूपांतर और
दिव्यीकरण जिससे यह जगत् सामंजस्य और ज्योति, शांति और
सौंदर्य से बना हुआ एक पुण्य स्थल बन जायेगा । ४२६ (गायिका अधिकाधिक द्रवित होती हाथ जोड़े प्रार्थना की मुद्रा मैं खड़ी है ! कवि आदर के साथ "उस" की ओर हुक जाता है, उसके हाथ पर अपना मस्तक रख देता है परदा मदिरता है !
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